उत्तर प्रदेश में कड़ाके की सर्दी, 10 लाख बच्चे बिना स्वेटर-जूते स्कूल जाने को मजबूर…
आधार और बैंक लिंक न होने से अटकी 1200 रुपये की डीबीटी
4 days ago Written By: Ashwani Tiwari
Uttar Pradesh News: उत्तर प्रदेश में ठंड और कोहरे का मौसम तेज हो गया है, लेकिन सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले करीब 10 लाख गरीब बच्चे आज भी बिना स्वेटर, जूते-मोजे और बैग के ठिठुरते हुए क्लास में बैठने को मजबूर हैं। बेसिक शिक्षा विभाग ने इस साल छात्रों के लिए यूनिफॉर्म, स्वेटर, जूते-मोजे, बैग और स्टेशनरी के लिए 1200 रुपये सीधे अभिभावकों के बैंक खाते में भेजने का फैसला लिया था, लेकिन यह राशि लाखों बच्चों तक नहीं पहुंच पाई। वजह है, अभिभावकों का आधार कार्ड न होना या बैंक खाते से आधार का लिंक न होना। तकनीकी दिक्कतों के कारण डीबीटी की रकम अटक गई और सर्दी के इस मौसम में बच्चे परेशान हैं।
क्यों नहीं पहुंच पा रहे 1200 रुपये सरकारी आंकड़ों के अनुसार करीब 3.50 लाख अभिभावकों के आधार कार्ड बने ही नहीं हैं, जबकि 6.50 लाख अभिभावकों का आधार बैंक खातों से लिंक नहीं है। इस कारण लगभग 10 लाख बच्चे योजना से बाहर रह गए हैं। बेसिक शिक्षा निदेशक प्रताप सिंह बघेल ने सभी जिलों के बीएसए को निर्देश दिया है कि ब्लॉक संसाधन केंद्रों पर विशेष कैंप लगाकर अभिभावकों के आधार बनवाए जाएं और बैंक खातों को जल्द से जल्द लिंक कराया जाए।
कैंप लगाए गए, लेकिन नहीं पहुंच पा रहे अभिभावक, बच्चों की हालत खराब जमीनी हकीकत यह है कि कई जिलों में कैंप लगाए तो जा रहे हैं, लेकिन दूर-दराज गांवों के अभिभावक वहां तक पहुंच नहीं पा रहे। ग्रामीण क्षेत्रों की बैंक शाखाओं में आधार लिंकिंग की गति बेहद धीमी है। स्कूलों के कई शिक्षकों ने बताया कि सुबह की ठंड में बिना स्वेटर और जूते-मोजों के बच्चे कांपते हुए स्कूल आते हैं। कई बच्चे तो ठंड की वजह से बीमार भी हो गए हैं। एक शिक्षक के मुताबिक, लगभग 40 फीसदी बच्चे आज भी फटी यूनिफॉर्म और चप्पल पहनकर स्कूल आ रहे हैं। 1200 रुपये मिल जाएं तो कम से कम स्वेटर और जूते ले सकें।
सरकार का दावा- दिसंबर अंत या जनवरी तक मिल जाएगी राशि बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि दिसंबर के आखिर या जनवरी के पहले सप्ताह तक सभी लंबित मामलों का निपटारा कर दिया जाएगा। लेकिन तब तक लाखों बच्चों को बिना गर्म कपड़ों के कठोर सर्दी में स्कूल जाना पड़ रहा है। मामला सिर्फ 1200 रुपये का नहीं, बल्कि उन मासूम बच्चों की ठिठुरती उंगलियों और उम्मीदों का है, जो हर सुबह सरकारी भरोसे के साथ स्कूल पहुंचते हैं।