अचानक क्यों सामने आया दागियों को हटाने वाला बिल..!
आंखिर केंद्र के निशाने पर कौन..!
1 months ago
Written By: आदित्य कुमार वर्मा
मॉनसून सत्र के अंतिम दिनों में केंद्र की एनडीए सरकार ने संसद में ऐसा विधेयक पेश कर दिया है, जिसने सियासी गलियारों में तूफान ला दिया है। यह बिल उन प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रियों को पद से हटाने से जुड़ा है, जो गंभीर आपराधिक मामलों में 5 साल से अधिक की सजा पाकर 30 दिन से ज्यादा जेल में रहते हैं। बिल के मुताबिक, ऐसे नेताओं को जेल से रिहाई के बाद ही फिर से उसी पद पर बहाल होने की अनुमति होगी। जिसके बाद अब ये एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि आंखिर केंद्र सरकार इस चुनावी मौसम में ये बिल लाकर क्या साबित करना चाहती है या फिर आंखिर केंद्र के निशाने पर कौन है ? जिसको इस बिल से नुकसान पहुंचा सकता है। आइए इसकी पड़ताल करते हैं…
बिल पास कराने की जल्दबाजी नहीं
दरअसल विपक्ष ने इस बिल का जिस अंदाज में विरोध किया है, वह अप्रत्याशित है। कांग्रेस की अगुवाई में पूरा विपक्ष इसे सरकार की राजनीतिक चाल करार दे रहा है। वहीं, एनडीए सरकार का दावा है कि यह कदम भ्रष्टाचार के खिलाफ “निर्णायक लड़ाई” का हिस्सा है। आमतौर पर कोई विवादित बिल आने पर उसे संसदीय समिति के पास भेजा जाता है, लेकिन सरकार ने इस बार इसे सीधे संसद की संयुक्त संसदीय समिति (JPC) में भेजने का प्रस्ताव रखा। इसका मतलब साफ है कि सरकार को इस विधेयक को जल्दबाजी में पास नहीं कराना, बल्कि इस पर लंबी बहस छेड़नी है। संसद के गणित पर नजर डालें तो बिल पास कराना आसान नहीं है। लोकसभा में 542 सांसदों में से एनडीए के पास फिलहाल 293 वोट हैं, जबकि दो-तिहाई बहुमत के लिए 361 वोट चाहिए। राज्यसभा में 239 सदस्यों में से एनडीए के पास 132 वोट हैं, जबकि 160 का आंकड़ा जरूरी है। यानी विपक्ष के सहयोग के बिना इसे पास कराना लगभग असंभव है। इसके अलावा, अगर संसद से बिल पास हो भी जाता है, तो आधे राज्यों की विधानसभाओं की मंजूरी भी लेनी होगी।
बिहार चुनाव की रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा कदम
वहीं सियासी विश्लेषकों का मानना है कि केंद्र सरकार के इस कदम के पीछे बिहार चुनाव की तैयारी भी हो सकती है। इन दिनों विपक्ष बिहार में जारी स्पेशल इंटेंसिव रिवीजन (SIR) और ‘वोट चोरी’ के आरोपों को लेकर सरकार पर हमला कर रहा है। ऐसे माहौल में एनडीए सरकार का यह विधेयक लाना विपक्ष को घेरने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है। अगर विपक्ष इस बिल पर संयुक्त संसदीय समिति में शामिल होने से इनकार करता है, तो बीजेपी के पास जनता के बीच यह प्रचार करने का बड़ा मौका होगा कि “भ्रष्ट नेताओं की सफाई” के खिलाफ सबसे बड़ा अवरोधक खुद विपक्ष है।
मोदी सरकार के निशाने पर कौन?
एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस बिल के पीछे मुख्य मकसद राजनीति में “भ्रष्टाचार विरोधी छवि” को मजबूत करना है। इसकी शुरुआत तब हुई जब दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार के मामले में जेल गए, लेकिन इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। इसके अलावा, तमिलनाडु के एक मंत्री के मामले में सुप्रीम कोर्ट तक ने राज्य सरकार को फटकार लगाई थी। सरकारी सूत्रों का मानना है कि, इस मुद्दे पर संविधान में कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है। शायद संविधान निर्माताओं ने मौजूदा सियासी हालात की कल्पना नहीं की थी। बताया जा रहा है कि केंद्र सरकार ने यह विधेयक केजरीवाल के जेल जाने के समय इसलिए नहीं लाया, क्योंकि इससे “राजनीतिक प्रतिशोध” की बू आती। लेकिन अब, जब दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी हार चुकी है, तो एनडीए के पास इसे आगे बढ़ाने का बेहतर मौका है।
सत्ता बनाम विपक्ष की नई जंग
सरकारी सूत्रों के अनुसार, यह विधेयक पास हो या न हो, सरकार को “राजनीतिक फायदा” तो होना ही है। अगर विपक्ष इसका समर्थन नहीं करता, तो एनडीए इसे जनता के सामने “भ्रष्ट नेताओं को बचाने की कोशिश” के रूप में पेश करेगा। वहीं, अगर विपक्ष समर्थन देता है, तो सरकार इसे अपनी “भ्रष्टाचार विरोधी जीत” के तौर पर दिखाएगी। सियासी पंडितों का मानना है कि यह विधेयक न सिर्फ संसद में, बल्कि बिहार के चुनावी मैदान तक गूंजेगा। आने वाले दिनों में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच भ्रष्टाचार, पारदर्शिता और नैतिक राजनीति पर टकराव और तेज होने वाला है।